अश्क और मौहब्बत
शायरः महेन्द्र वर्मा
उसके अश्कों से मौहब्बत साफ झलक रही थी।
जुबान खामोश थी गर आँखे गम ए मौहब्बत का इजहार कर रही थी।
आज उसकी डोली गैर के आँगन में सज रही थी।
जुबान खामोश थी मगर मौहब्बत बोल रही थी।
आसमान में बादलो की गड़गड़ाहट से शहनाईयों की आवाज दब रही थी
आसमान गम एं मौहब्बत का मंजर बर्दाश न कर सका
बारीश की बूँदों पड़ने लगी आसमान भी अपने जजबात रोक न सका
साखी के अश्कों को कोई रोक न सका
मेरे जजबात को जमाना भी समझ न सका
साखी अपने जजबात बयान करना चाहती थी
जमाने के डर से वो कुछ बोल न सकी
मौहब्बत भरे जजबातों को मंडप की आग में जलते देख
वो अपनी मौहब्बत को रोक न सकी
गैर के साथ बन्धी डोरी वो खोलने लगी।
मंडप से दौडकर वो मुझसे लिपट पड़ी
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